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वैदिक ज्योतिष में मुहूर्त बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। किसी भी शुभ कार्य करने से पहले हम मुहूर्त निकालते हैं। मुहूर्त निकालने की प्रक्रिया में भ्रदा भी अहम भूमिका निभाती है। मुहूर्त शुभ भी हो परंतु भद्रा तत्कालीन अशुभ प्रभाव में हो तो कार्य में बाधा आ सकती है। इसलिए मुहूर्त निकालने के दौरान भद्रा भी देखना आवश्यक होता है। भद्रा के समय कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। लेकिन कुछ परिस्थियां ऐसी भी हैं जहां भद्रा लाभकारी साबित हुई है। भद्रा का प्रभाव स्वर्ग लोक, पाताल लोक और पृथ्वी लोक तीनों लोकों पर होता है।
भद्रा माता, छाया से उत्पन्न सूर्य भगवान की पुत्री और शनिदेव की बहन है। इनका विकराल रूप काला, लंबे बालों और दांतों वाला है। अपने इस भयावह रूप के कारण उन्हें हिंदू पंचांग में विष्टि करण के रूप में जगह दी गई है। जन्म के समय भद्रा माता पूरे संसार को अपना निवाला बनाने वाली थीं और इस कारण सभी यज्ञ, पूजा-पाठ, उत्सव या किसी भी मंगल कार्य में विघ्न डालने लगीं। बाद में ब्रह्मा जी के समझाने के उपरांत उन्हें सभी 11 करणों में सातवें करण विष्टि करण के रूप में जगह दी गई और भद्रा को विष्टि करण के नाम से भी जाना जाता है। यह भद्राकाल के रूप में आज भी विद्यमान है।
हिंदू पंचांग पांच मुख्य तत्वों तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण के संयोग से बने हैं। चंद्र दिवस के आधे हिस्से को करण कहते हैं और हर तिथि में दो करण होते हैं। कुल मिलाकर ग्यारह करण होते हैं, जिनमें से चार निश्चित स्थान पर हैं तो वहीं बाकी सात अस्थिर होते हैं। चार निश्चित करण हैं- शकुनि, चतुष्पद, नाग और किस्तुघ्न। अन्य सात अस्थिर करण हैं बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि। विष्टि करण को ही भद्रा भी कहा जाता है। यह हमेशा चलयमान अवस्था में रहता है। पंचांग के निर्माण में भद्रा का महत्वपूर्ण स्थान होता है।
तीनों लोकों में भद्रा का वास है। ये हर समय तीनों लोकों में विचरण करती रहती हैं। जब चंद्रमा, मेष, वृष, मिथुन या वृश्चिक राशि में स्थित होता है तो भद्रा का वास स्वर्ग लोक में होता है। जब चंद्रमा, कन्या, तुला, धनु और मकर राशि में स्थित होता है तब भद्रा का वास पाताल लोक में माना जाता है। जब चंद्रमा, कर्क, सिंह, कुंभ और मीन राशि में स्थित होता है तब भद्रा का वास पृथ्वी लोक में माना जाता है। पृथ्वी लोक में वास के समय भद्रा का मुख सामने की ओर होता है। वहीं स्वर्ग लोक में वास के समय इसका मुख ऊपर की ओर और पाताल लोक में वास के समय भद्रा का मुख नीचे की ओर होता है।
पृथ्वी लोक में वास के समय सामने की ओर भद्रा का मुख होना प्रभावी होता है। इस कारण भद्राकाल में पृथ्वी पर किसी भी मंगल कार्य की पूर्ति नहीं की जाती है। ऐसे समय में किए गए कार्य असफल नतीजों पर पहुंचते हैं। वहीं जब भद्रा स्वर्ग लोक या पाताल लोक में वास करती है तब इसके शुभ फल की संभावना की जाती है।
भद्राकाल को अशुभ घड़ी माना जाता है। अत: इस काल में कोई भी शुभ कार्य करना वर्जित है। भद्रा के शरीर के विभिन्न अंग के वास स्थान के अनुसार भी शुभ-अशुभ कार्य को बांटा गया है। ज्योतिष विद्या के अनुसार, जब भद्रा का मुख, कंठ और हृदय धरती पर होता है तब कोई भी शुभ कार्य नहीं करने चाहिए। लेकिन भद्रा की पूंछ कार्यों की पूर्ति के लिए ठीक माना गया है।
भद्राकाल में मुंडन, विवाह, गृह प्रवेश, तीर्थ स्थलों का भ्रमण, संपत्ति या व्यापार की शुरुआत या निवेश ये सभी मंगल कार्य भद्राकाल में नहीं करने चाहिए। अगर भद्राकाल में आपने किसी कार्य को कर लिया जो नहीं करना चाहिए था तो भद्रा के कष्टकारी प्रभाव से मुक्ति के लिए शिव की आराधना की जानी चाहिए।
किसी दुश्मन पर प्रहार करना, हथियारों का इस्तेमाल, सर्जरी, ऑपरेशन, किसी के विरोध में कानूनी कार्रवाई करना, आग लगाना, भैंस, घोड़े, ऊंट आदि जानवरों से संबंधित कार्य की शुरुआत करना शुभ फलदायी हो सकते हैं। यज्ञ-हवन भी किया जाता है। यह भी कहा गया है कि अगर किसी को कोई जरूरी कार्य करना है तो उन्हें यह काम सुबह के समय जब भद्रा उत्तरार्ध में होती है अथवा रात में जब भद्रा पूर्वार्ध में होती है, तब करना चाहिए। ज्योतिषियों के अनुसार भद्रा के प्रकोप से बचने के लिए सुबह उठते समय भद्रा के 12 नामों का जाप करना चाहिए।
भद्रा के 12 नाम- धान्या, दधिमुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारुद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुरक्ष्याकारी। मान्यता है कि अगर आप भद्रा का आदर करें, रीति-रिवाज के साथ उनकी पूजा करें, उनके 12 नामों का जाप करें तो भद्राकाल में आप कष्ट से मुक्त रहेंगे। अत: मुहूर्त में भद्रा का वास अति महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसका आपके जीवन पर शुभ-अशुभ असर होता है।
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